- पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
- कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
कुछ साथ नही ले जाना है.
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
- कंचन का भार न ढोते हैं,
- लाते हैं रतन लुटाने को,
दान ही हृदय का देते हैं.
"प्रासादों के कनकाभ शिखर,
- होते कबूतरों के ही घर,
- कंचन पर कभी न सोता है.
शैलों की फटी दरारों में.
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
- मानव होता निज तप क्षीण,
- करते मनुष्य का तेज हरण.
पर वही मनुज को खाता है.
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
- नर भले बने सुमधुर कोमल,
- आताप अंधड़ में जिए बिना,
विघ्नों को नही हिला सकता.
"उड़ते जो झंझावतों में,
- पीते सो वारी प्रपातो में,
- विषधर भुजंग भोजन जिनका,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
- सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
- सकता न किसी विधि उसे छोड़,
अहिपाश काटना है मुझको.
"संग्राम सिंधु लहराता है,
- सामने प्रलय घहराता है,
- बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.
"अब देर नही कीजै केशव,
- अवसेर नही कीजै केशव.
- संग्राम तुरत ठन जाने दें,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.
"हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
- मेरी यह जन्मकथा गोपन,
- जैसे हो इसे छिपा रहिए,
सिंहासन को ठुकराएँगे.
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
- सारी संपत्ति मुझे देंगे.
- दुर्योधन को दे जाऊँगा.
दुख से न छूट वे पाएँगे.
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
- हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
- शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."
रथ से रधेय उतार आया,
- हरि के मन मे विस्मय छाया,
- तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
नरता का है भूषण महान."
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