- करके रण गर्जन घोर चले
- आ मिला चकित भरमाया सा
ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,
- शम-दम की टेढी घात चली,
- अब शेष नही कोई उपाय
क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
- कुछ नहीं समझने वाला है
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
- मति गई मूढ़ की मरी है
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
- रण में जब काल प्रकट होगा?
- भीतर विधवाओं की पुकार
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
- हाँ एक बात यदि तू माने,
समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
- तू एकमात्र उसका जीवन
- तुझसे जय का विश्वास उसे
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
- कौरव के दल में रहता है,
पांडव से लड़ने हो तत्पर
"माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
- अब कहा मान इतना मेरा
- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
- तेरा अभिषेक करेंगे हम
सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
- आनंद-चमत्कृत जग होगा
- असली स्वरूप में जानेंगे
कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा,
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
- कोई न कहीं दुःख में होगा
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
- बस एक भीख मुझको दे दे
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
- जो कुछ आपने बताया है
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
- निज तन से जो शिशु को निकाल
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
- पालती उदर में रख जिसको,
- अन्तर का रुधिर पिलाती है
नागिन होगी वह नारि नहीं
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
- जिस माँ ने मेरा किया जनन
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
- उलटे अभिशाप लिया मैंने
- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
- राजाओं के सम्मुख मलीन,
- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
- अपमान अनल में जलता था,
- माँ की ममता पर हुई वृथा
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,
- दिन-रात बड़े सुख में भूली
- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
- सुत के धन धाम गंवाने पर
- अथवा मन के घबराने पर
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
- वह शाप अभी भी है मुझमें
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
- मेरा सुख या पांडव की जय?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
- सब लोग हुए हित के कामी
- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
- अंचल के तले छिपा कर के
- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
- सच है की झूठ मन में गुनिये
- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
- सारे समाज को क्रुद्ध देख
- आ गया अचानक दुर्योधन
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
- राधा ने माँ का कर्म किया
- देने आया वह दुर्योधन
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
- यश, मान, मुकुट पहना कर के
- सामने जगत के ला करके
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
- यह जीवन दुर्योधन का है
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
- ठाना है उसने महासमर
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
- घनघोर प्रलय छाने को है
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
- जिसको होगा इसका प्रत्यय
- मन में वह यही विचारेगा
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
- अर्जुन पर भी होगा कलंक
- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
- सारा जग मुझ पर थूकेगा
- मेरे होंगे मिट्टी समान
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
- हम क्यों रण को सज्जित होते
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
- कुछ पता नहीं किस ओर चली
- सूझता न कूल-किनारा है
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
- भीतर जीवन का रस फीका
- परिचय न तेज से दे सकते
कुल को खाते औ' खोते हैं
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